Shreemati Napkin:  बांस और केले के रेशों से तैयार किए जाने वाले श्रीमती नैपकिन (Shreemati Napkin) के बारे में हम बताने जा रहे हैं। दक्षिणी दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती में रहने वाली रेशमा अक्सर सोचती थी कि सैनिटरी नैपकिन बनते कैसे हैं।

उसकी यह जिज्ञासा तब और बढ़ गई जब उसे मालूम चला कि माहवारी के समय इस्तेमाल किए जाने वाले पैड प्लास्टिक के बजाय प्राकृतिक उत्पादों से भी बनाए जा सकते हैं. फिर क्या था, उसकी यह जिज्ञासा उसे “फिर से इस्तेमाल होने वाले और पर्यावरण अनुकूल” पैड बनाने वाली फैक्टरी तक ले

गई, जिसे जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों ने शुरू किया है.

श्रीमती नैपकिन (Shreemati Napkin)

श्रीमती नैपकिन (Shreemati Napkin)

यह सैनिटरी नैपकिन प्रॉडक्शन यूनिट साउथ दिल्ली के मदनपुर खादर में श्रम विहार के एक इलाके में बदलाव ला रही है, जहां आम तौर पर महिलाएं पुरुषों के सामने महिला संबंधी समस्याओं के बारे में बात भी नहीं करती हैं. जामिया के छात्रों ने इस प्रॉडक्ट को नाम दिया- श्रीमती. चलिए बताते हैं श्रीमती के बारे में.

12 बार इस्तेमाल की जा सकती है

सैनिटरी नैपकिन प्रॉडक्शन यूनिट के संस्थापक युवाओं ने दावा किया कि बांस और केले के रेशों से तैयार किए जाने वाले श्रीमती नैपकिन का इस्तेमाल फिर से किया जा सकता है और यह पर्यावरण के अनुकूल है. इन्हें कम से कम 12 बार इस्तेमाल किया जा सकता है.

इस निर्माण इकाई में काम करने वाली छह महिला कामगारों में से एक 35 वर्षीय महिला रेशमा कहती हैं, जब भइया और दीदी (जामिया के स्टूडेंट्स) आए तो हम उनके सामने माहवारी के बारे में बात करने को लेकर बहुत शर्मा रहे थे. लेकिन जब हमने वीडियो देखे और इसके बारे में जाना तो हम थोड़े सहज हो गए. अब मैं एक हाइड्रॉलिक प्रेस पर काम करती हूं, जिसका इस्तेमाल नैपकिन बनाने में होता है और अब इस पर अच्छे से काम कर लेती हूं.

2019 में शुरू किया था काम

छात्र संगठन इनेक्टस से जुड़े जामिया के छात्रों ने फिर से इस्तेमाल किए जाने वाले पैड्स पर 2019 में काम शुरू किया था और उन्हें इस उत्पाद को बनाने में एक साल से अधिक का वक्त लगा. ये नैपकिन पहली बार में फिर से इस्तेमाल करने लायक आम नैपकिन जैसी दिखती हैं लेकिन इनकी खासियत इसमें इस्तेमाल होने वाला कच्चा माल है.

श्रीमती नैपकिन (ShriMati Napkin)

ब्लड सोखने वाला हिस्सा रेशे का

युवाओं ने बताया कि इस सैनिटरी नैपकिन की पहली परत फर की और दूसरी परत लाइक्रा की होती है. इसमें ब्लड सोखने वाला हिस्सा केले और बांस के रेशों से बनाया जाता है. इस उत्पाद को अंतिम रूप देने के बाद अगला काम इनका उत्पादन है. इसके लिए तीन मशीनों की आवश्यकता थी और इन्हें खरीदने के लिए छात्रों को पैसे की जरूरत थी. छात्रों ने बताया कि फंड के लिए वह दान लेने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास गए.

2.5 लाख रुपये मिले और शुरू कर दिया काम

इनेक्टस के अध्यक्ष और जामिया के तृतीय वर्ष के छात्र गौरव चक्रवर्ती ने कहा, इस उत्पाद को अंतिम रूप देने के बाद सबसे बड़ा काम खास मशीनें खरीदने का था. कई कंपनियों को अपना काम दिखाने के बाद वे 2.5 लाख रुपये हासिल कर पाए. हमें एक बहुराष्ट्रीय कंपनी की सीएसआर गतिविधियों के तहत मशीनों के लिए निधि मिली और इसे एक एनजीओ द्वारा चलाए जा रहे सिलाई केंद्र में लगाया गया और सैनिटरी पैड का उत्पादन शुरू किया गया.

22 छात्र लगे हैं, रोजगार भी दे रहे

श्रीमती नाम से चलाए जा रहे इस प्राॅडक्ट में करीब 22 छात्र लगे हुए हैं. इस समूह को तीन से चार छात्रों के दलों में बांटा गया है. एक दल उत्पादन का काम देखता है जबकि दूसरा विपणन और अन्य काम देखता है. छात्रों ने कहा कि उन्हें लगता है कि उनकी कोशिश मासिक धर्म से जुड़ी टैबूज को तोड़ देगी. वे इनमें वंचित वर्ग की महिलाओं को नौकरी दे रहे हैं. इन महिलाओं को प्रति पैड 25 रुपये के हिसाब से भुगतान किया जाता है.

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